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Global Warming

वैज्ञानिकों ने गेहूं की फसल को गर्मी के तनाव से बचने के लिए हीट टॉलरेंट किस्में विकसित की

वैज्ञानिकों ने गेहूं की फसल को गर्मी के तनाव से बचने के लिए हीट टॉलरेंट किस्में विकसित की

विभिन्न जलवायु खतरों में से गर्मी का तनाव सबसे महत्वपूर्ण है, जो फसल उत्पादन को बाधित करता है। प्रजनन चरण के दौरान गर्मी से संबंधित क्षति फसल की उपज को बहुत नुकसान पहुंचाती है। गेहूं में टर्मिनल हीट स्ट्रेस से मॉर्फोफिजियोलॉजिकल बदलाव, जैव रासायनिक व्यवधान और आनुवंशिक क्षमता में कमी आती है।

गेहूं की फसल में गर्मी का तनाव जड़ों और टहनियों का निर्माण, डबल रिज चरण पर प्रभाव और वानस्पतिक चरण में प्रारंभिक बायोमास पर भी प्रभाव डालती  है। गर्मी के तनाव के अंतिम खराब परिणामों में अनाज की मात्रा, वजन में कमी, धीमी अनाज भरने की दर, अनाज की गुणवत्ता में कमी और अनाज भरने की अवधि में कमी शामिल है।              

आज के आधुनिक युग में जहां तापमान में लगातार बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। सर्दी के मौसम में भी गर्मी होती है जिस कारन से रबी की फसल उत्पादन पर बहुत बुरा प्रभाव पद रहा है। जिस कारण से किसानों को भी बहुत नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने विकसित की हीट टॉलरेंट किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने गेहूं की फसल के उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए गेहूं की नई किस्में विकसित की है। ये किस्में मार्च अप्रैल के महीने में तापमान में होने वाली वृद्धि में भी अच्छी उपज दे सकती है। इन किस्मों में ऐसे जीन डालें गए है जो की अधिक तापमान में भी फसल की उत्पादकता में कमी नहीं आने देंगे। 

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इन किस्मों की बुवाई किसान समय और देरी से भी कर सकते है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक से बातचीत के दौरान पता चला है की उन्होंने गेहूं की बहुत सारी किस्में विकसित की है जो की समय पर बुवाई और देरी से बुवाई के लिए उचित है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने कई किस्में विकसित की है जो की मार्च और अप्रैल की गर्मी को सहन करके भी अच्छी उपज देगी। कृषि वैज्ञानिकों ने कई नई किस्में विकसित की है जिनकी बुवाई से किसानों को अच्छा उत्पादन प्राप्त होगा। इन किस्मों के नाम आपको निचे देखने को मिलेंगे। 

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HD- 3117, HD-3059, HD-3298, HD-3369 ,HD-3271, HI-1634, HI-1633, HI- 1621, HD 3118(पूसा वत्सला) ये सभी किस्में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गयी है। इन  किस्मों में मार्च अप्रैल के अधिक तापमान को सहने की क्षमता है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार कृषि प्रबंधन तकनीकों को आपके भी गेहूं में गर्मी के तनाव को कम किया जा सकता है

कुछ कृषि प्रबंधन तकनीकों में बदलाव करके भी किसान गेहूं की फसल में गर्मी के तनाव को कम कर सकते है - जैसे की मिट्टी की नमी की हानि को कम करने के लिए संरक्षण खेती, उर्वरकों की संतुलित खुराक का उपयोग करना,  बुआई की अवधि और तरीकों को बदलना आदि  अत्यधिक गर्मी के प्रभाव को कम करने के लिए बाहरी संरक्षक का उपयोग करना, गेहूं को गर्म वातावरण में उगाने के लिए बेहतर तरीके से तैयार किया जा सकता है। 

इनके अलावा गर्मी के तनाव के कारण पानी की कमी को कम करने के लिए मल्चिंग एक अच्छा विकल्प हो सकता है, खासकर वर्षा आधारित क्षेत्रों में जहां पानी की उपलब्धता एक गंभीर चिंता का विषय है। जैविक मल्च मिट्टी की नमी बनाए रखने, पौधों की वृद्धि और नाइट्रोजन उपयोग दक्षता में सुधार करने में मदद करते हैं।

भारत के उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में, जीरो टिलेज तकनीक का उपयोग करके चावल के ठूंठों की उपस्थिति में गेहूं बोने से पानी और मिट्टी के पोषक तत्वों के संरक्षण में मदद मिलती है और खरपतवार की घटनाओं को कम किया जाता है। इससे गेहूं की फसल को अंतिम गर्मी के तनाव के अनुकूल बनाया जाता है और गेहूं की फसल के समग्र स्वास्थ्य में सुधार होता है।

गेहूं की लंबी किस्मों की अनुशंसित बुआई समय से अधिक देरी करने से फसल को प्रजनन के बाद के चरणों में गर्मी के तनाव का सामना करना पड़ सकता है जो अंततः उपज और अनाज की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इसलिए किसी भी कीमत पर गेहूं की समय पर बुवाई की जाने वाली किस्मों की देर से बुआई करने से बचना चाहिए। जल्दी पकने वाली और लंबी दाना भरने की अवधि वाली किस्मों के रोपण से टर्मिनल ताप तनाव के प्रभाव से बचा जा सकता है। 

बागवानी किसानों के लिए समस्या बनती जलवायु परिवर्तन, कैसे बचाएं अपनी उपज

बागवानी किसानों के लिए समस्या बनती जलवायु परिवर्तन, कैसे बचाएं अपनी उपज

औद्योगिक क्रांति के बाद से पूरे विश्व भर में ग्लोबलवार्मिंग(Global warming) और जलवायु परिवर्तन(Climate change) केवल मानव जाति के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र(Ecosystem) के लिए एक समस्या बनकर उभरा है। एक समय जिस स्थान पर अच्छी बारिश होती थी आज वहां हर वर्ष सूखा पड़ रहा है, इसका मुख्य कारण जलवायु में परिवर्तन ही है। जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी पर रहने वाले हर प्रजाति को कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नुकसान उठाना पड़ता है, इसी नुकसान की वजह से पिछले कुछ वर्षों से फलों के लिए बागवानी खेती करने वाले किसान भाइयों को उपज में काफी कमी देखने को मिली है। उत्तरी भारत के राज्यों में फल उगाने वाले किसान अब नई वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से कुछ उपाय खोजने की कोशिश कर रहे हैं। कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार साल 2021-22 में भारत में लगभग 7 मिलियनहेक्टरक्षेत्र में फल उगाए जाते हैं और प्रतिवर्ष लगभग 93 मिलियनटन फल प्राप्त होते हैं।भारतीय बागवानी कृषि विश्व भर के उत्पाद में लगभग 10% हिस्सेदारी निभाती है। आम, केला और अमरूद तथा अनार, अंगूर और पपीता जैसे प्रमुख फसलों के उत्पादन में भारत विश्व के शीर्ष देशों में शामिल है।

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जलवायु परिवर्तन से फलदार पौधों को होने वाले नुकसान :

वैश्विक तापमान में परिवर्तन और बारिश के पैटर्न में हुए बदलाव की वजह से फलदार पौधों में निम्न नुकसानदायक प्रभाव देखने को मिले हैं :

  • तापमान में वृद्धि होने के कारण किसी भी पौधे पर लगने वाले फलों की परिपक्वता का समय कम हो जाता है। इसकी वजह से वह जल्दी तैयार हो जाते हैं और इन्हें बाजार में जल्दी बेचना पड़ता है, इससे फलों के भंडारण की संभावना कम हो जाती है और उन्हें तुरंत भेजना पड़ता है। इस वजह से किसानों को सही दाम नहीं मिल पाते और उनका मुनाफा कम हो जाता है।
  • इसके अलावा किसी स्थान पर अधिक वर्षा या सूखा पड़ने पर फसल की उत्पादकता पूरी तरीके से कम होने के साथ ही वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि होने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा है, जिस कारण फसल की गुणवत्ता पर काफी बुरा प्रभाव देखने को मिला है।
  • अधिक कार्बन-डाइऑक्साइड की वजह से फलों में स्टार्च और ग्लूकोज की मात्रा ज्यादा देखने को मिल रही है, जिससे इन फलों के सेवन से रक्तचाप और शुगर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ रहा है।
  • अधिक ग्लूकोज संचित करने वजह से इन फलों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
  • इसके अलावा विश्वत रेखा (Equatorial area) के आसपास वाले क्षेत्रों में आसमान में अधिक समय तक बादल छाए रहने की वजह से वहां पर उगाए जाने वाले आम और अमरूद के फलों में एस्कोरबिक अम्ल (Ascorbic acid) की मात्रा घट जाती है, जिस वजह से फल में पाई जाने वाली मिठास कम हो जाती है और फुल पूरी तरह से फीका लगता है। इस कारण उसकी बाजारू मांग में भी कमी देखने को मिलती है।
  • बदली हुई जलवायु परिस्थितियां नए प्रकार के रोगों को जन्म दे रही है, तापमान में बढ़ोतरी होने से कई सूक्ष्म जीव और बैक्टीरिया पौधों की जड़ों और तने को नुकसान पहुंचाते हैं, इसके अलावा इन बैक्टीरिया की वर्द्धि दर भी तेज हो जाती है, जो बाद में सीधे फलों को ही खाने लगते हैं। इन रोगों की रोकथाम के लिए किसानों को रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है, जो लागत को बढ़ाकर आर्थिक दबाव पैदा करते हैं।

ऊपर बताए गए नुकसान को ध्यान में रखते हुए अब कृषि वैज्ञानिक इनके निदान के लिए प्रयास कर रहे हैं।

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फलदार पौधों को जलवायु परिवर्तन से बचाने के कुछ उपाय :

हालांकि किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को पूरी तरीके से खत्म तो नहीं किया जा सकता, लेकिन वैज्ञानिक विधियों की मदद से इसे कम भले ही किया जा सकता है।

  • गर्मी के मौसम में पेड़ों की कटाई-छंटाई कम करनी चाहिए और पेड़ के तने और उसकी मोटी शाखाओं को सफेद रंग से पुताई कर देने पर सूरज से आने वाली किरण का प्रभाव कम पड़ता है, जिससे फल के पकने में लगने वाला समय अधिक हो जाता है और किसान को अच्छी उपज के साथ ही अच्छा मुनाफा हो पाता है।
  • अधिक गर्मी पड़ने से बाग के क्षेत्र में नमी की मात्रा कम हो जाती है। नमी को बरकरार बनाए रखने के लिए समय-समय पर क्षेत्र की नमी की जांच करनी चाहिए और बाग की नियमित और उचित सीमित मात्रा में सिंचाई करनी चाहिए।
  • यदि आप के बाग में पिछले सीजन के कुछ पौधे बचे हुए हैं और उनसे फल प्राप्त नहीं हो रहे हैं, तो उन्हें काटकर उनकी पलवार बना देनी चाहिए, जिससे बाग के क्षेत्र के तापमान को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
  • रासायनिक उर्वरकों की तुलना में जैविक खाद का इस्तेमाल करने से पौधों में नमी बनी रहती है और उन्हें पानी की कम आवश्यकता होती है। इससे रासायनिक उर्वरक खरीदने का खर्चा भी बच जाता है।
  • अधिक ठंड पड़ने वाले क्षेत्रों में तापमान को नियंत्रित करने के लिए पतझड़ के समय पौधों के नीचे गिरी हुई सूखी टहनियों और पत्तियों को इकट्ठा कर जलाने से भी फायदा हो सकता है।
  • इसके अलावा पत्तियों को जलाने से होने वाले धुआं की वजह से कई प्रकार के छोटे कीट और फल मक्खी पौधों से दूर भाग जाते हैं, इससे आपकी फलों की निरन्तर सुरक्षा भी हो पाती है।
  • फलों की छोटी पौध को हमेशा पश्चिम और उत्तर दिशा की तरफ मुंह करते हुए लगाना चाहिए, इससे सूरज की किरणों का कम प्रभाव पड़ता है।

पिछले 3 वर्षों से उत्तरप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के क्षेत्रों में उगने वाले 'अल्फांसोआम' की उपज में काफी गिरावट देखने को मिली है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में उगने वाले 'अवधपुरीकेला' तथा उत्तर प्रदेश में उगने वाले 'इलाहाबादसफेदाअमरूद' और जम्मू एवं कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में लगने वाले 'लाला अम्बरी सेब' की गुणवत्ता में कमी आने के साथ ही इनके स्वाद में पायी जाने वाली मिठास भी कम होती जा रही है। 

आशा करते हैं कि Merikheti.com के द्वारा बागवानी फलों का उत्पादन करने वाले किसान भाइयों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभाव और उनसे बचने के उपायों के बारे में जानकारी मिल गई होगी। यदि आप भी बागवानी फलों की खेती करते हैं तो कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा सुझाए गए और ऊपर बताई गई जानकारी का फायदा उठाकर अपने बाग की उपज को वापस पहले की स्तर पर ले जाकर अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।

Natural Farming: प्राकृतिक खेती में छिपे जल-जंगल-जमीन संग इंसान की सेहत से जुड़े इतने सारे राज

Natural Farming: प्राकृतिक खेती में छिपे जल-जंगल-जमीन संग इंसान की सेहत से जुड़े इतने सारे राज

जीरो बजट खेती की दीवानी क्यों हुई दुनिया? नुकसान के बाद दुनिया लाभ देख हैरान ! नीति आयोग ने किया गुणगान

भूमण्डलीय ऊष्मीकरण या आम भाषा में ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) से हासिल नतीजों के कारण पर्यावरण संरक्षण (Environmental protection), संतुलन व संवर्धन के प्रति संवेदनशील हुई दुनिया में नेट ज़ीरो एमिशन (net zero emission) यानी शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए देश नैचुरल फार्मिंग (Natural Farming) यानी प्राकृतिक खेती का रुख कर रहे हैं। प्राकृतिक खेती क्या है? इसमें क्या करना पड़ता है? क्या प्राकृतिक खेती बहुत महंगी है? जानिये इन सवालों के जवाब।

खेत और किसान की जरूरत

इसके लिए यह समझना होगा कि, किसी खेत या किसान के लिए सबसे अधिक जरूरी चीज क्या है? उत्तर है खुराक और स्वास्थ्य देखभाल।मतलब, यदि किसी खेत के लिए जरूरी खुराक यानी उसके पोषक तत्व और पादप संरक्षण सामग्री का प्रबंध प्राकृतिक तरीके से किया जाए, तो उसे ही प्राकृतिक खेती (Natural Farming) कहते हैं।

प्राकृतिक खेती क्या है?

प्राकृतिक खेती, प्रकृति के द्वारा स्वयं के विस्तार के लिए किए जाने वाले प्रबंधों का मानवीय अध्ययन है। इसमें कृषि विज्ञान ने किसानी में उन तरीकों कोे अपनाना श्रेष्यकर समझा है, जिसे प्रकृति खुद अपने संवर्धन के लिए करती है। प्राकृतिक खेती में किसी रासायनिक पदार्धों के अमानक प्रयोग के बजाए, प्रकृति आधारित संवर्धन के तरीके अपनाए जाते हैं। इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) या एकीकृत कृषि प्रणाली, प्राकृतिक खेती का वह तरीका है, जिसकी मदद से प्रकृति के साथ, प्राकृतिक तरीके से खेती किसानी कर किसान कृषि आय में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकता है।


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प्राकृतिक संसाधनों के प्रति देशों की सभ्यता का प्रमाण तय करने वाले नेट ज़ीरो एमिशन (net zero emission) यानी शुद्ध शून्य उत्सर्जन अलार्म, के कारण देशों और उनसे जुड़े किसानों को कृषि के तरीकों में बदलाव करना होगा। COP26 summit, Glasgow, में भारत ने 2070 तक, अपने नेट ज़ीरो एमिशन को शून्य करने का वादा किया है। इसी प्रयास के तहत भारत में केंद्र एवं राज्य सरकार, इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित कर रही हैं। प्राकृतिक खेती में सिंचाई, सलाह, संसाधन के प्रबंध के लिए किसानों को प्रोत्साहन योजनाओं के जरिए लाभान्वित किया जा रहा है।


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प्राकृतिक खेती के लाभ

प्राकृतिक खेती के लाभों की यदि बात करें, तो इसमें घरेलू संसाधनों से आवश्यक पोषक तत्व और पादप संरक्षण सामग्री तैयार की जा सकती है। किसान इस प्रकृति के साथ वाली किसानी की विधि से कृषि उत्पादन लागत में भारी कटौती कर कृषि उपज से होने वाली साधारण आय को अच्छी-खासी रिटर्न में तब्दील कर सकते हैं। प्राकृतिक खेती से खेत में उर्वरक और अन्य रसायनों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।

प्राकृतिक खेती की जरूरत

एफएओ 2017, खाद्य और कृषि का भविष्य – रुझान और चुनौतियां शीर्षक आधारित रिपोर्ट के अनुसार नीति आयोग (NITI Aayog) ने मानवीय जीवन क्रम से जुड़े कुछ अनुमान, पूर्वानुमान प्रस्तुत किए हैं। नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत जानकारी के अनुसार, विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक लगभग 10 अरब तक हो जाने का पूर्वानुमान है। मामूली आर्थिक विकास की स्थिति में, इससे कृषि मांग में वर्ष 2013 की मांग की तुलना में 50% तक की वृद्धि होगी। नीति आयोग ने खाद्य उत्पादन विस्तार और आर्थिक विकास से प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव पर चिंता जताई है। बीते कुछ सालों में वन आच्छादन और जैव विविधता में आई उल्लेखनीय कमी पर भी आयोग चिंतित है। रिपोर्ट के अनुसार, उच्च इनपुट, संसाधन प्रधान खेती रीति के कारण बड़े पैमाने पर वनों की कटाई, पानी की कमी, मृदा क्षरण और ग्रीनहाउस गैस का उच्च स्तरीय उत्सर्जन होने से पर्यावरण संतुलन प्रभावित हुआ है। वर्तमान में बेमौसम पड़ रही तेज गर्मी, सूखा, बाढ़, आंधी-तूफान जैसी व्याथियों के समाधान के लिए कृषि-पारिस्थितिकी, कृषि-वानिकी, जलवायु-स्मार्ट कृषि और संरक्षण कृषि जैसे ‘समग्र’ दृष्टिकोणों पर देश, सरकार एवं किसानों को मिलकर काम करना होगा। खेती किसानी की दिशा में अब एक समन्वित परिवर्तनकारी प्रक्रिया को अपनाने की जरूरत है।

भविष्य की पीढ़ियों का ख्याल

हमें स्वयं के साथ अपनी आने वाली पीढ़ियों का भी यदि ख्याल रखना है, धरती पर यदि भविष्य की पीढ़ी के लिए जीवन की गुंजाइश शेष छोड़ना है तो इसके लिए प्राकृतिक खेती ही सर्वश्रेष्ठ विचार होगा।


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यह वह विधि है, जिसमें कृषि-पारिस्थितिकी के उपयोग के परिणामस्वरूप भावी पीढ़ियों की जरूरतों से समझौता किए बगैर, बेहतर पैदावार हासिल होती है। एफएओ और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने भी प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए तमाम सहयोगी योजनाएं जारी की हैं।

प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के लाभों को 9 भागों में रखा जा सकता है :

1. उपज में सुधार 2. रासायनिक आदान अनुप्रयोग उन्मूलन 3. उत्पादन की कम लागत से आय में वृद्धि 4. बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चितिकरण 5. पानी की कम खपत 6. पर्यावरण संरक्षण 7. मृदा स्वास्थ्य संरक्षण एवं बहाली 8. पशुधन स्थिरता 9.रोजगार सृजन

नो केमिकल फार्मिंग

प्राकृतिक खेती को रासायनमुक्त खेती ( No Chemical Farming) भी कहा जाता है। इसमें केवल प्राकृतिक आदानों का उपयोग किया जाता है। कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित, यह एक विविध कृषि प्रणाली है। इसमें फसलों, पेड़ों और पशुधन एकीकृत रूप से कृषि कार्य में प्रयुक्त होते हैं। इस समन्वित एकीकरण से कार्यात्मक जैव विविधता के सर्वोत्तम उपयोग में किसान को मदद मिलती है।


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प्रकृति आधारित विधि

अपने उद्भव से मौजूद प्रकृति संवर्धन की वह विधि है जिसे मानव ने बाद में पहचान कर अपनी सुविधा के हिसाब से प्राकृतिक खेती का नाम दिया। कृषि की इस प्राचीन पद्धति में भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखा जाता है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक कीटनाशक का उपयोग वर्जित है। जो तत्व प्रकृति में पाए जाते है, उन्हीं को खेती में कीटनाशक के रूप में अपनाया जाता है। एक तरह से चींटी, चीटे, केंचुए जैसे जीव इस खेती की सफलता का मुख्य आधार होते हैं। जिस तरह प्रकृति बगैर मशीन, फावड़े के अपना संवर्धन करती है ठीक उसी युक्ति का प्रयोग प्राकृतिक खेती में किया जाता है।

ये चार सिद्धांत प्राकृतिक खेती के आधार

प्राकृतिक कृषि के सीधे-साधे चार सिद्धांत हैं, जो किसी को भी आसानी से समझ में आ सकते हैं। ये चार सिद्धांत हैं:
  • हल का उपयोग नहीं, खेत पर जुताई-निंदाई नहीं, बिलकुल प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की तरह की जाने वाली इस खेती में जुताई, निराई की जरूरत नहीं होती।
  • किसी तरह का कोई रासायनिक उर्वरक या फिर पहले से तैयार की हुई खाद का उपयोग नहीं
  • हल या शाक को नुकसान पहुंचाने वाले किसी औजार द्वारा कोई निंदाई, गुड़ाई नहीं
  • रसायनों पर तो किसी तरह की कोई निर्भरता बिलकुल नहीं।

जीरो बजट खेती (Zero Budget Farming)

अब जिस खेती में निराई गुड़ाई की जरूरत न हो, तो उसे जीरो बजट की खेती ही कहा जा सकता है। प्राकृतिक खेती को ही जीरो बजट खेती भी कहा जाता है। प्राकृतिक खेती में प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को लाभकारी बनाने के तरीके निहित हैं। किसी बाहरी कृत्रिम तरीके से निर्मित रासायनिक उत्पाद का उपयोग प्राकृतिक खेती में वर्जित है। जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती में गाय के गोबर एवं गौमूत्र का उपयोग कर भूमि की उर्वरता बढ़ाई जाती है। शून्य उत्पादन लागत की प्राकृतिक खेती पद्धति के लिए अलग से कोई इनपुट खरीदना जरूरी नहीं है। जापानियों द्वारा प्रकाश में लाई गई इस विधि की खेती में पारंपरिक तरीकों के विपरीत केवल 10 प्रतिशत पानी की दरकार होती है।
इस साल रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की आशंका - भारतीय मौसम विज्ञान विभाग

इस साल रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की आशंका - भारतीय मौसम विज्ञान विभाग

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा की गई घोषणा के मुताबिक, भारत में इस वर्ष गर्मी के मौसम (अप्रैल से जून) में औसत से ज्यादा गर्मी के दिन देखने को मिल जाएंगे।  

भारत के ज्यादातर इलाकों में सामान्य से भी ज्यादा तापमान दर्ज किए जाने की संभावना है। दरअसल, अनुमान यह है, कि गर्मी का सबसे ज्यादा प्रभाव दक्षिणी इलाके, मध्य भारत, पूर्वी भारत और उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों पर पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के मैदानी क्षेत्रों में इस बार हर साल से अधिक तपिश देखने को मिलेगी। 

यह ऐलान तब किया गया जब भारत पहले से ही अपनी बिजली की मांग को पूर्ण करने के लिए संघर्ष कर रहा है, जो गर्मी के मौसम में बेहद बढ़ जाती है। 

एक विश्लेषण में कहा गया कि 31 मार्च, 2024 को समाप्त होने वाले साल में भारत का जलविद्युत उत्पादन कम से कम 38 सालों में सबसे तेज गति से गिरा है। 

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आगामी महीनों में भी जलविद्युत उत्पादन शायद सबसे कम रहेगा, जिससे कोयले पर निर्भरता काफी बढ़ जाएगी। साथ ही, इससे वायु प्रदूषण अगर बढेगा तो ये गर्मी में और अधिक योगदान प्रदान करेगा।

भारतीय मौसम विभाग ने क्या कहा है ?

आईएमडी के पूर्वानुमान में कहा गया है, कि पूर्व और उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों और उत्तर-पश्चिम के कुछ इलाकों को छोड़कर भारत के अधिकांश हिस्सों में गर्मी  सामान्य से ज्यादा ही रहेगी। यानी कि अधिकतम और न्यूनतम तापमान सामान्य से भी ऊपर रहेगा। 

भारत में इस बार अधिक गर्मी पड़ने की आशंका है ?

अल नीनो भारत में कम वर्षा और अधिक गर्मी का कारण बनती है। भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र में मध्यम अल नीनो स्थितियां अभी मौजूद हैं, जिसकी वजह से समुद्र की सतह के तापमान में लगातार बढोतरी हो रही है। 

समुद्र की सतह पर गर्मी समुद्र के ऊपर वायु प्रवाह को प्रभावित करती है। चूंकि, प्रशांत महासागर धरती के करीब एक तिहाई भाग को कवर करता है। इसलिए इसके तापमान में परिवर्तन और उसके बाद हवा के पैटर्न में परिवर्तन विश्वभर में मौसम को बाधित करता रहा है। 

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यूएस नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन का कहना है, कि इस वर्ष की जनवरी 175 सालों में सबसे गर्म जनवरी थी। हालांकि, अगले सीजन के दौरान अल नीनो के कमजोर होने और ‘तटस्थ’ होने की संभावना है। 

कुछ मॉडलों ने मानसून के दौरान अल नीनो की स्थिति विकसित होने की भी संभावना जताई है, जिससे पूरे दक्षिण एशिया में विशेष रूप से भारत के उत्तर-पश्चिम और बांग्लादेश में तेजी से वर्षा हो सकती है।